प्रार्थना केवल मात्र मूर्ति प्रार्थना नही होती बल्कि आंतरिक आत्मिक भावनाओं का एक वह श्रोत होता है, कि
जब वह दिल से स्फुरित होता है, तो उस वक़्त प्राणी मात्र के सामने जो भी होता है, उसी में परमात्मा का
समावेश हो जाता है और यह एक अटल सत्य है,क्यों कि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उस परमपिता परमात्मा के
संकल्प मात्र से स्फुरित हुआ है और यह भी एक अटल सत्य कि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उस परमपिता
परमात्मा के एक संकल्प मात्र से परमात्मा में ही फिर से लीन हो जाता है और यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड
परमपिता परमात्मा के कारण ही दिखता और अदृश हो जाता है, लेकिन परमपिता परमात्मा का अस्तित्व
हमेशा था ,हमेशा है और हमेशा रहेगा। इसीलिए हमें यह बात सदा याद रखनी चाहिए कि जब हम प्रार्थना
करते है उस वक़्त यह विषय नहीं रह जाता है, कि हमारे सामने मूर्ति मात्र है अथवा कुछ और क्योंकि हम सब
का परमपिता परमात्मा विषय आत्मिक नहीं है बल्कि भावनात्मिक है और दिल कि ग़हराइयों से कि गई
प्रार्थना हमेंशा ही स्वीकार होती है और इसमें यह विषय नहीं रह जाता कि प्रार्थना साक्षात् मूर्ति के समक्ष
अथवा किसी और के समक्ष हो रही है.प्रार्थना के वक़्त भाव ही मुख्य होता है और विषय गौन रह जाता है.
इसलिए हमें प्रार्थना के वक़्त हमेंशा विषय वस्तु कि जगह हमारे आंतरिक आत्मिक भाव कि और ज्यादा
ध्यान देना चाहिए।
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